Sunday, November 6, 2011

रोती हूँ मैं इसके सामने तभी तो.

समंदर के किनारे बैठी हूँ,
कुछ भी नही बस लेहेरों को ताक रही हूँ.
जिस तरह वो निरन्तर  चंचल है,
मेरा मन भी बहुत  अशान्त है.

हर सुभा मैं यहाँ आती हूँ.
 पता नही क्युं?
जिस घर से दूर रहना    बिल्कुल पसंद नही मुझे,
भूल जाती हूँ उसे, मैं यहाँ आके.

मेरे गुज़रे कल पे,
नाज है मुझे,
मुझमें छिपी कब्लियत को,
निहारती हूँ मैं यहाँ बैठे- बैठे.

एक यह सागर ही है जो,
भुला देती है मेरे गमो को.
तभी तो यह मुझे अपना लगता है,
रोती हूँ मैं इसके सामने तभी तो.

6.30am
17th july 11

3 comments:

  1. Arpita,

    I think this is my first visit. Read all current poems. I am at a loss of words to say which I liked the most as each is so good. Please keep writing.

    Take care

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  2. Great Work! :) :)

    Honestly i am here for NAME-SAKE!!! :P

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