Thursday, April 22, 2010

काश दिन के घंटे ज्यादा होते!

करना है काम बहुत सारा,
कहाँ से शुरू करूँ? नहीं चल रहा है पता.
बिस्तर पर सोये सोये याद आता है काम मुझे,
तरीके सोचती रहती हूँ, हर पल पूरे करने के उसे.
घंटे हैं दिन के चौबीस,
करने होते है काम इसी बीच छब्बीस,
देना होता है सबको वक़्त भी,
ध्यान रखना होता है काम को भी इसी बीच.
लगता है अब तो सहारा ईश्वर का ही है,
जो, कोई चमत्कार कर सकते हैं.
या तो मेरी नींद कम कर दे,
नहीं तो प्रार्थना है की दिन के घंटे बढ़ा दे.
2.15 am
13th april 2010.

1 comment:

  1. हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.

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