काश मैं एक पंची होती,
मुक्त मैं गगन में उडती रहती,
एक ही जगह बसे रहने का बंधन नहीं होता,
पूरे धरती पर विचरण करती.
किसी भी देश में घूमने जाती,
जब तक मन करता वहीँ रहती,
फिर किसी और देश को देखने जाती,
नहीं होती लेनी किसी की अनुमति.
जहाँ तैरती वहीँ अपना घोसला बनती,
किसी भी पेड़ पर रहने लगती,
उस शेहेर से जी भर जाते ही,
अगले महादीप के लिए उड़ने लगती.
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
ReplyDeleteअत्यंत खूबसूरत प्रस्तुति।
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