Saturday, August 21, 2010

मैं खाना अच्छा बनाती हूँ

मेरे में एक गुण है,
जिसकी हमेशा मुझे तारीफ मिलती है,
मैं खाना अच्छा बनाती हूँ,
जिसे घर वाले चाव से खाते हैं।

मेरे दोस्त को यकीन नहीं हुआ,
की मैं बना सकती हूँ अच्छा खाना,
जब मैंने उसे बना के खिलाया ,
तो मेरे गुणों की तारीफ करने लगा।

अच्छा पकवान बनाना,
होता है बहुत सारा वक़्त रसोई में बिताना।
मेरे जैसी नौकरी करने वाली महिला के लिए,
बहुत मुश्किल होता है समय निकलना।
1.27am, 19th aug 2010.

7 comments:

  1. hey! very nice poem.....


    regards........


    www.lekhnee.blogspot.com

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  2. अपिर्ता जी, लगता कि घर आ कर खाना खाना पड़ेगा।

    शायद शीर्षक में कुछ वर्तनी की गलती है।

    कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। यह न केवल मेरी उम्र के लोगों को तंग करता है पर लोगों को टिप्पणी करने से भी हतोत्साहित करता है। आप चाहें तो इसकी जगह कमेंट मॉडरेशन का विकल्प ले लें।

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  3. भीशोण सुन्दर. मैं खाना अच्छा बनती हूँ के बदले मै खाना अच्छा बनाती हूँ होना था.

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  4. अपिर्ता जी, लगता कि घर आ कर खाना खाना पड़ेगा।

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  5. अपिर्ता जी, लगता कि घर आ कर खाना खाना पड़ेगा।

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  6. यकीं नहीं हो रहा अर्पिता ....
    शायद ये अच्छा खाना ही बोल रहा है :-)

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  7. बहुत खूब ,मैं अच्छा खाना खाता हूं हा हा हा हा

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