Thursday, June 24, 2010

बीत चुकी वो रातें जब जगे रहना हमारी आदत थी

बीत चुकी वो रातें जब जगे रहना हमारी आदत थी,

हाथों में किताबें लिए, रात भर पढ़ना हमारी चुनौती थी.

जगे रहना रात भर, सुबह-सुबह बस का इंतज़ार,

हर रोज़ बस स्टॉप पे एक ख़ास चेहरे का दीदार,

जिस से करने को बातें होता था मन बेकरार.

हम आठ लार्कियाँ, थे सारे शैतानो की नानी,

जलते थे बाकि सब, दोस्ती से हमारी.

दिन वो बड़े ही सुहावने थे, जब हम सब साथ पड़ते थे,

एक साथ खाते थे, घूमते थे साथ में.

होती थी हमारी जेबे खली,पर पास हमारे सपने बेशुमार थे.

व्यस्त हैं आज हम सभी अपनी ज़िंदगी में,

पैसे हैं सबके पास, पर हम साथ नहीं हैं दोस्तों के.

खो गए हैं सरे सप्नेआखों से,

हर किसी को चिंता है आगे की ज़िंदगी के.

2.50 am

9th sept 2009.

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